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बुधवार, 20 अगस्त 2014

वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना

कड़ी धूप में अपने घर से निकलना
वो चिड़िया वो बुलबुल वो तितली पकड़ना  



     अब तो बचपन ही खो गया है , हुमकते कंधे झुक से गये हैं !! “लद्दू घोड़े के जैसे दौड़ना है और सबसे आगे जाना है” हर वक्त बच्चों के कान में यही मन्त्र फूँका जाता है । 

     किसी छुट्टी की सुबह को नाश्ता करके हमजोलियों को साथ लेकर आंगन या छत पर बैठ जाया करते थे | माँ से आटा छानने वाली छन्नी माँगी जाती थी, जो आसानी से नहीं मिलती थी “तुम लोग तोड़ दोगे” , बड़ी मनुहार के बाद जब मिल जाती थी तो उसमें एक सुतली बाँध लेते थे | एक पत्थर या लकड़ी का सहारा देकर उसको टिकाया हुआ है, सुतली सबसे अनुभवी साथी के हाथ में है, छन्नी के नीचे चावल के दाने हैं और बाल-साधना प्रारम्भ !!

     निकर पहने हुए, आस्तीन से नाक पोंछते हुए बैठे हैं , ठंड के दिन हैं तो एक दूसरे की स्वेटर से उन के रुयें उखाड़-उखाड़कर गेंद सी बनायी जा रही है।  कोई गौरैया दिखी नहीं कि सब के सब एक दम चुप ! अब बच्चे गौरैया का और गौरैया बच्चों का जायजा ले रही है ।  बेजुबानों को भी इस बात की समझ होती है कि कौन उन्हें नुक्सान पहुँचायेगा और कौन नहीं, ताड़ जाते हैं वो इस बात को । 

     अब मुंडेर या टहनी से उतर कर गौरैया धीरे-धीरे दानों की तरफ आ रही है और बच्चे अपलक उसकी एक-एक गतिविधि पर नजर रखे हुए हैं, बिलकुल खामोश, मूर्तिवत, पलकें झपकना भूल गए हैं।  अब सारा दारोमदार अनुभवी साथी पर है , डोरी पर कितना तनाव रखना है ? चिड़िया कहाँ आ जाए तब सुतली छोड़ना है, वगैरह-वगैरह !! अब चूँकि सारी जिम्मेदारी उसी की है, चिड़िया पकड़ में ना आई तो दोस्तों के सारे उलाहने उसी को सुनना पड़ेंगे इसलिये वह भी अपने सारे कौशल से काम लेता है ।  

     अब चिड़िया चलनी के बीचोंबीच आ गई है, और इधर सुतली पर पकड़ ढीली करते ही गौरैया गिरफ़्त में ! टोली के बीच में हर्ष की लहर दौड़ गई ..... सभी साथियों ने आकर छन्नी के ऊपर से ही चिड़िया का मुआयना किया कि कहीं यह पहले भी तो नहीं पकड़ी गई थी ? अब यह कैसे मालूम होता था इसका पता अभी चल जाएगा ।  

     चूहे की दौड़ मगरे तक ठीक वैसे ही बच्चों की दौड़ माँ तक, चिड़िया को रंगना है ! रंग कहाँ से आयेगा ? 

     घर में मेहमानी करने के लिए बुआ-मौसी आती ही हैं तो उनको विदा करते वक्त उनके पैरों में गीली हल्दी लगा के महावर-आलता लगाया ही जाता है, बचा हुआ महावर-आलता उसमें सूख जाता है | एक छोटी तश्तरी इसी के लिए है अब की मनुहार इसी तश्तरी के लिए है | माँ दो-चार बातें और पकड़ाएगी फिर यह रंगीन बर्तन दे ही देगी 

     एक बार फिर तजुर्बेकार दोस्त को जिम्मेदारी निभानी है , उसे चिड़िया को पकड़कर बाहर निकालना है , इसे काम में कितनी नाज़ुकी बरतनी पड़ती है , नन्हीं सी तो जान है !! तश्तरी में थोड़ा पानी डाल के रंग तैयार किया गया फिर सबने अपनी-अपनी उँगलियाँ डुबो कर उसे चिड़िया को लगाया.....मस्ती सूझी तो एक दूसरे को भी लगा दिया जब सब मन मुताबिक इस काम को अंजाम दे चुके तो चिड़िया को बिठाकर उसकी सुरक्षा की जा रही है , क्योंकि उसके पंख गीले हैं जब तक सूख न जायेंगे वो उड़ नहीं पायेगी ।  

     और फिर देखते ही देखते गोरैया फुर्रर्रर ...........

     ना किसी को कुछ मिला ना किसी के कुछ हाथ आया पर सब के सब ऐंसे खुश हैं जैसे जग जीत लिया हो ।  यही तो है बचपन ... प्यारे !! तुम किस कोने में जाकर छुप गये ? अमित तुमको बहुत याद करता है 

     चलते-चलते आपको बता दें आज यह रंगी हुई गोरैया देखी छत पर तो यह कहने से अपने आपको रोक नहीं पाया, हमने भी खूब किया है ये खेल कब सुबह, दोपहर से होकर शाम में बदल जाती थी पता भी नहीं चलता था।   तब तक के लिए आज्ञा दीजिये , अमित के प्रणाम स्वीकार करें..... 

शीर्षक : श्री सुदर्शन फाकिर की गजल 'कागज़ की कश्ती' से साभार 
छायाचित्र : अमित  

मंगलवार, 19 अगस्त 2014

तुम्हें मुझसे प्यार है

:: कविता ::



तुम्हें मुझसे प्यार है

" बिला वजह तकरार हुई और हुआ इश्क का किस्सा तमाम, 
चौखट से टिकी बाट जोहती हो शायद तुम्हें मुझसे प्यार है । 


बातों को वादा मान बैठे और हुआ रिश्तों का किस्सा तमाम,
आँखों के धागे में मोती पिरोती हो शायद तुम्हें मुझसे प्यार है । 


उठ आये तेरे पास से और हुआ मौसम का किस्सा तमाम,
यादों की क्यारी रोज भिगोती हो शायद तुम्हें मुझसे प्यार है । 


पुकारा नींद को फिर से और हुआ ख्वाबों का किस्सा तमाम,
जागी रातों के सितारे सँजोती हो शायद तुम्हें मुझसे प्यार है । 


गलियाँ रूठी हमसे और हुआ मुलाकातों का किस्सा तमाम,
सुर्ख शीशों से पत्थर फोड़ती हो शायद तुम्हें मुझसे प्यार है ।  "


*पहले-पहल फेसबुक पर दिनांक 06 अप्रैल 2014 को प्रकाशित  
चित्र : साभार गूगल छवियाँ 

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

सुनो मन अब यह कर लो निश्चय

:: कविता ::



सुनो मन अब यह कर लो निश्चय


" सुनो मन अब यह कर लो निश्चय,
न होगे विचलित,मिले जय-पराजय । 

अब टूट चला वह सम्मोहन, 
बीते कुछ दिन, रहा भ्रम और संशय, 
सुनो मन अब यह कर लो निश्चय,
न होगे विचलित,मिले जय-पराजय । 

क्या स्वप्न थे वह प्रणय निवेदन,
अभिसार वह था ,कल्पना का विषय,
सुनो मन अब यह कर लो निश्चय,
न होगे विचलित,मिले जय-पराजय । 

सामयिक मनो-भँवर था अति-विकट, 
सदैव आन्दोलित रहा सुकोमल ह्रदय, 
सुनो मन अब यह कर लो निश्चय,
न होगे विचलित,मिले जय-पराजय । 

सम्बन्धों के तड़ित-मायाजाल से,
स्थिर हुआ अब जाके परिचय,
सुनो मन अब यह कर लो निश्चय,
न होगे विचलित,मिले जय-पराजय । 

शांत हुआ,स्पष्ट हो गया,
उस करबद्ध निवेदन का आशय, 
सुनो मन अब यह कर लो निश्चय,
न होगे विचलित,मिले जय-पराजय । 

तब भी स्त्रवित रक्त-बिंदु का है नाद, 
अहर्निश तुम हो प्रफुल्लित, रहो निरामय, 
सुनो मन अब यह कर लो निश्चय,
न होगे विचलित,मिले जय-पराजय ।  " 

( यह कविता फेसबुक पर दिनांक 19 जून 2013 को प्रकाशित की थी, चित्र: साभार - गूगल छवियाँ )