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शनिवार, 19 मार्च 2016

जाल




क्या कभी फँसते देखा है 
मकड़ी को अपने ही जाल में 
उसने खुद बुना है इसे 
फँसने का डर नहीं उसे


उसे पता है 
कहाँ से निकलना है 
किधर पहुँचना है 
किसे कब कैसे फँसाना है

और जकड़ के 
अपना जहर भर के 
जीते-जी है पचा देना 
उत्कटता चूस लेना

जिस दिन तुम जाल से 
बचना सीख लोगे
उस दिन तुम जाल भी 
बुनना सीख लोगे

खुद ही मकड़ी बन जाओगे

शब्द : डॉ.अमित कुमार नेमा
छायाचित्र  : नेशनल ज्योग्राफिक 






4 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " एक 'डरावनी' कहानी - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. शिवम जी , मेरी रचना 'जाल ' को ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " एक 'डरावनी' कहानी - ब्लॉग बुलेटिन " , मे शामिल करने हेतु ... सादर आभार !

      हटाएं